हमला तो गुदगुदावत हे, पर के चुगली – चारी हर : छत्‍तीसगढ़ी गज़ल

1

जंगल के तेंदू – चार नँदागे,
लाखड़ी, जिल्लो दार नँदागे।

रोवत हावै जंगल के रूख मन,
उनकर लहसत सब डार नँदागे।

भठगे हे भर्री – भाँठा अब तो,
खेत हमर, मेंढ़ – पार नँदागे।

का-का ला अब तैं कहिबै भाई,
बसगे शहर, खेती-खार नँदागे।

गाड़ी हाँकत, जावै गँवई जी,
गड़हा मन के अब ढार नँदागे।

गाँव के झगरा-झंझट मा जी,
नेवतइया गोतियार नँदागे।

2

नइ चले ग अब पइसा दारू,
नेता मन के तिपही तारू।

कौनो संग गंगा जल बधो,
कौनो संग तुम गंगा बारू।

सबके नस-नस हम जानत हन,
कइसे करहू कारू – नारू।

बटन चपकबोन सोच-समझ के
कहत हे, सुखिया अउ बुधारू।

कारू-नारू = जादू-टोना/ छेड़-छाँड़।

3

बिरबिट करिया दिखत हावै, रतिहा के अँधियारी हर,
उत्ती डहर कब बगरही, सुरूज के उजियारी हर।

घर-घर मा बैर बँधा के, मन के बात कइसे काहौं,
खुदे ला चिन्हावत नइ हे, अपने अँगना – दुवारी हर।

असल ल पतियावन नहीं, एकरे चिंता मन मा हावै।
सपना म लहलहावत हे, गाँव के नरवा – बारी हर,

का सच हे अउर झूठ का हे, मन मा एला बिचारौ ,
हमला तो गुदगुदावत हे, पर के चुगली – चारी हर।

धरम-जात के खाँचा खानेन, ओला कइसे पाटन,
आपस मा तो लड़त हावै, साहू अउर तिवारी हर।

-बलदाऊ राम साहू

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One Thought to “हमला तो गुदगुदावत हे, पर के चुगली – चारी हर : छत्‍तीसगढ़ी गज़ल”

  1. रीझे यादव

    शानदार,गजब रचना हे साहू जी

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