1
जंगल के तेंदू – चार नँदागे,
लाखड़ी, जिल्लो दार नँदागे।
रोवत हावै जंगल के रूख मन,
उनकर लहसत सब डार नँदागे।
भठगे हे भर्री – भाँठा अब तो,
खेत हमर, मेंढ़ – पार नँदागे।
का-का ला अब तैं कहिबै भाई,
बसगे शहर, खेती-खार नँदागे।
गाड़ी हाँकत, जावै गँवई जी,
गड़हा मन के अब ढार नँदागे।
गाँव के झगरा-झंझट मा जी,
नेवतइया गोतियार नँदागे।
2
नइ चले ग अब पइसा दारू,
नेता मन के तिपही तारू।
कौनो संग गंगा जल बधो,
कौनो संग तुम गंगा बारू।
सबके नस-नस हम जानत हन,
कइसे करहू कारू – नारू।
बटन चपकबोन सोच-समझ के
कहत हे, सुखिया अउ बुधारू।
कारू-नारू = जादू-टोना/ छेड़-छाँड़।
3
बिरबिट करिया दिखत हावै, रतिहा के अँधियारी हर,
उत्ती डहर कब बगरही, सुरूज के उजियारी हर।
घर-घर मा बैर बँधा के, मन के बात कइसे काहौं,
खुदे ला चिन्हावत नइ हे, अपने अँगना – दुवारी हर।
असल ल पतियावन नहीं, एकरे चिंता मन मा हावै।
सपना म लहलहावत हे, गाँव के नरवा – बारी हर,
का सच हे अउर झूठ का हे, मन मा एला बिचारौ ,
हमला तो गुदगुदावत हे, पर के चुगली – चारी हर।
धरम-जात के खाँचा खानेन, ओला कइसे पाटन,
आपस मा तो लड़त हावै, साहू अउर तिवारी हर।
-बलदाऊ राम साहू
शानदार,गजब रचना हे साहू जी